Uttrakhand: प्रदेश में भूस्खलन से बनीं झीलों का रहा लंबा इतिहास, वैज्ञानिकों के शोध से सामने आया चिंताजनक सच

Rishab Gusain
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देहरादून। उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है, लेकिन यहां की भौगोलिक संरचना और मौसम की मार अक्सर इसे आपदा-भूमि भी बना देती है। पहाड़ों में बार-बार हो रहे भूस्खलन अब सिर्फ सड़कें या गांव उजाड़ने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि नदियों को रोककर खतरनाक झीलें भी बना रहे हैं। हाल ही में आईआईटी रुड़की के वैज्ञानिकों के शोध ने इस खतरे पर गंभीर चेतावनी दी है।

160 साल का खतरनाक सफर

रिपोर्ट के अनुसार 1857 से 2018 तक उत्तराखंड में 23 बार भूस्खलन से अस्थायी बांध बने और उनके टूटने से तबाही मची। सबसे बड़ा उदाहरण 1893 का गोहना ताल है, जो अलकनंदा नदी पर बना था। यह ताल 76 साल बाद 1970 में टूटा और हरिद्वार तक बाढ़ ले आया।

ऐसे बांध तब बनते हैं जब भूस्खलन का मलबा किसी नदी का रास्ता रोक देता है। धीरे-धीरे वहां पानी जमा होकर झील का रूप ले लेता है। खतरा तब पैदा होता है जब यह झील अचानक टूट जाती है—जिसे वैज्ञानिक लैंडस्लाइड लेक आउटबर्स्ट फ्लड (LLOF) कहते हैं। हाल ही में स्यानाचट्टी और धराली में ऐसे हालात देखने को मिले।

चमोली, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी सबसे संवेदनशील

आईआईटी रुड़की के वैज्ञानिक श्रीकृष्ण शिवा सुब्रहम्णयम और शिवानी जोशी की टीम ने पाया कि उत्तराखंड की संकरी घाटियां, कमजोर चट्टानें और भूकंपीय गतिविधि इसे बेहद संवेदनशील बनाती हैं। चमोली जिला और अलकनंदा घाटी इस खतरे का सबसे ज्यादा सामना कर चुके हैं।

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मानसून के महीनों (जुलाई-सितंबर) में खतरा और बढ़ जाता है। आंकड़े बताते हैं कि 28% घटनाएं मलबे के खिसकने से, 24% चट्टान गिरने से और 20% मलबे के बहाव से हुईं। अगस्त महीना सबसे खतरनाक माना गया है।

प्राचीन झीलों की भी मिली पहचान

वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि पिछले 5000 से 14,000 साल पहले अलकनंदा और धौलीगंगा घाटियों में कई पुरानी भूस्खलन झीलें बनी थीं। इनकी पहचान आधुनिक तकनीक—ऑप्टिकल स्टिम्युलेटेड ल्यूमिनेसेंस (OSL), पराग विश्लेषण और रासायनिक परीक्षणों से की गई।

जलवायु परिवर्तन और बढ़ता खतरा

रिपोर्ट साफ कहती है कि क्लाइमेट चेंज के चलते उत्तराखंड का संकट और गहराया है। बादल फटने और अत्यधिक वर्षा की घटनाएं बढ़ने से भूस्खलन भी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। ऐसे में न सिर्फ गांव और शहर, बल्कि सड़क परियोजनाएं, सुरंगें और जल विद्युत प्रोजेक्ट भी बड़े खतरे में हैं।

1857 से 2018 तक बने भूस्खलन बांधों की सूची

वर्ष- नदी- भूस्खलन का कारण- बांध की स्थिति

1857- मंदाकिनी- ज्ञात नहीं- 03 दिन में टूटा

1868- अलकनंदा- ज्ञात नहीं- अस्थायी

1893- अलकनंदा- चट्टान गिरना- अस्थायी

1930- अलकनंदा- मलबा बहाव- अस्थायी

1951- पूर्वी नायर- मलबा बहाव- अस्थायी

1957- धौलीगंगा- हिमस्खलन- मलबे से भर गया

1968- ऋषिगंगा- मलबा खिसकना- 1970 में टूटा

1969- अलकनंदा- चट्टान गिरना- अस्थायी

1970- धाकनाला- मलबा बहाव- अस्थायी

1970- अलकनंदा- मलबा खिसकना- अस्थायी

1970- अलकनंदा-धौलीगंगा- हिमस्खलन- अस्थायी

1970- पाताल गंगा- मलबा बहाव- अस्थायी

1971- कनोलडिया गाड(भागीरथी)- मलबा खिसकना- अस्थायी

1978- कनोलडिया गाड- मलबा खिसकना- अस्थायी

1979- अलकनंदा- हिमस्खलन- अस्थायी

1979- क्यूनजा गाड- मलबा बहाव- अस्थायी

1998- मंदाकिनी- मलबा बहाव- अस्थायी

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1998- काली- चट्टान गिरना- 12 घंटे में टूटा

2001- यमुना- मलबा खिसकना- अस्थायी

2013- मधमहेश्वर- चट्टान गिरना- अस्थायी

2018- बावरा गाड (पिंडर सहायक)- मलबा खिसकना- अभी भी बांधित

2018- सोंग नदी- चट्टान गिरना- सात घंटे में टूटा

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