उत्तराखंड मदरसा बोर्ड के अध्यक्ष मुफ्ती शमुन कासमी के बयान ने गुरुवार को बड़ा विवाद खड़ा कर दिया। वे कचहरी परिसर स्थित शहीद स्मारक पर मीडिया से बात कर रहे थे, लेकिन उनके कहे कुछ शब्द आंदोलनकारियों को नागवार गुज़रे। नतीजा यह हुआ कि विरोध स्वरूप उन्हें वहां से लौटना पड़ा।
बयान कैसे बना विवाद का कारण?
दरअसल, उस दिन मुख्यमंत्री के कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुंचे कासमी ने मीडिया से बातचीत की। बातचीत के दौरान जब उनसे रामपुर तिराहा गोलीकांड पर सवाल पूछा गया, तो उन्होंने अपनी बात रखते हुए “शुभ दिन” शब्द का इस्तेमाल किया।
यहीं से विवाद की शुरुआत हुई।
- आंदोलनकारियों ने कहा कि रामपुर तिराहा कांड उत्तराखंड आंदोलन का सबसे काला दिन है।
- इस दिन को शुभ कहना शहीदों के अपमान के बराबर है।
- आंदोलनकारियों ने कड़ा एतराज़ जताते हुए कासमी को मौके से जाने के लिए मजबूर कर दिया।
आंदोलनकारियों का पक्ष
राज्य आंदोलनकारी मंच के अध्यक्ष जगमोहन नेगी, जिला प्रवक्ता प्रदीप कुकरेती और आंदोलनकारी मोहन कुमार ने संयुक्त बयान दिया। उन्होंने कहा कि:
- “कासमी ने गलत समय और गलत जगह पर अनुचित शब्द का प्रयोग किया।”
- “रामपुर तिराहा गोलीकांड शहीदों की कुर्बानी का प्रतीक है, ऐसे में इसे शुभ कहना अनुचित है।”
आंदोलनकारियों के लिए यह दिन सिर्फ इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि उनकी भावनाओं से गहराई से जुड़ा हुआ है।
कासमी की सफाई
मुफ्ती शमुन कासमी ने इस विवाद पर अपनी सफाई पेश करते हुए कहा:
- “मेरे बयान को गलत तरीके से समझा गया।”
- “मैंने शुभ दिन शब्द का प्रयोग गांधी जयंती, शास्त्री जयंती और दशहरे के संदर्भ में किया था, न कि रामपुर तिराहा गोलीकांड के लिए।”
- “रामपुर तिराहा की घटना बेहद दुखद थी और मैं आंदोलनकारियों की भावनाओं का सम्मान करता हूं।”
पृष्ठभूमि: रामपुर तिराहा गोलीकांड क्यों संवेदनशील है?
2 अक्टूबर 1994 की रात रामपुर तिराहा गोलीकांड उत्तराखंड आंदोलन का सबसे काला अध्याय माना जाता है।
- उस समय उत्तराखंड राज्य की मांग कर रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने गोली चलाई और बर्बरता की।
- कई आंदोलनकारियों की मौत हुई और महिलाओं के साथ दुष्कर्म तक की घटनाएं सामने आईं।
- इस कांड ने पूरे राज्य को हिला दिया और अलग राज्य की मांग और भी प्रबल हो गई।
इसलिए आज भी यह मुद्दा आंदोलनकारियों की भावनाओं से गहराई से जुड़ा हुआ है।
निष्कर्ष
उत्तराखंड मदरसा बोर्ड अध्यक्ष के बयान से भले ही यह विवाद अनजाने में खड़ा हुआ हो, लेकिन इसने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि रामपुर तिराहा गोलीकांड आज भी जनता के दिलों में गहरे जख्म की तरह मौजूद है।
आंदोलनकारियों की नाराज़गी कहीं न कहीं जायज़ है क्योंकि यह मुद्दा उनकी भावनाओं और बलिदान से जुड़ा है। वहीं कासमी की सफाई से साफ है कि उनका मकसद किसी को आहत करना नहीं था।
इस पूरे विवाद से यही सबक निकलता है कि जनप्रतिनिधियों को हर वक्त शब्दों का इस्तेमाल सोच-समझकर करना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी दो शब्द भी बड़ा बवाल खड़ा कर सकते हैं।