पंचायत चुनाव पर हाई कोर्ट की रोक हटी, उत्तराखंड सरकार को बड़ी राहत

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नैनीताल/देहरादून:
उत्तराखंड सरकार को त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव को लेकर बड़ी राहत मिली है। राज्य के 12 जिलों में पंचायत चुनाव प्रक्रिया पर लगी रोक को हाई कोर्ट ने हटा दिया है। शुक्रवार को मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति आलोक मेहरा की खंडपीठ ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए चुनाव कार्यक्रम को तीन दिन आगे बढ़ाने के निर्देश दिए हैं।

आरक्षण विवाद बना था अड़चन का कारण

इससे पहले, आरक्षण रोस्टर निर्धारण को लेकर याचिकाएं दाखिल की गई थीं, जिसमें कुछ सीटों पर लगातार एक ही वर्ग को प्रतिनिधित्व मिलने और आरक्षण प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल उठाए गए थे। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि 9 जून और 11 जून को राज्य सरकार द्वारा जारी नए आदेश पुराने आरक्षण रोस्टर को निरस्त कर पहली बार एक नया रोस्टर लागू करते हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 243 और सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के विपरीत है।

ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष आरक्षण पर उठे सवाल

सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह भी पूछा कि जहां ब्लॉक प्रमुख के लिए आरक्षण तय किया गया है, वहीं जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए कोई आरक्षण तय क्यों नहीं किया गया। याचिकाकर्ताओं ने उदाहरण देते हुए बताया कि देहरादून के डोईवाला ब्लॉक में 63% ग्राम प्रधान सीटें आरक्षित कर दी गई हैं, जिससे सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों के लिए अवसर कम हो गए हैं।

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चुनाव कार्यक्रम जल्द होगा जारी

राज्य निर्वाचन आयोग को अब निर्देश दिया गया है कि वह तीन दिन की देरी के साथ नया चुनाव कार्यक्रम जारी करे। पंचायती राज सचिव चंद्रेश यादव ने कोर्ट परिसर में मीडिया से कहा कि राज्य सरकार जुलाई के अंत तक पूरे पंचायत चुनाव की प्रक्रिया पूरी करने के लिए प्रतिबद्ध है।

महाधिवक्ता एस.एन. बाबुलकर ने कहा कि रोक हटने के बाद अब चुनाव कार्यक्रम को समायोजित करना राज्य निर्वाचन आयोग का कार्य है। उन्होंने बताया कि सरकार तीन सप्ताह के भीतर याचिकाओं पर जवाब दाखिल करेगी।

विजयी प्रत्याशियों की भी सुनी जाएगी बात

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि यदि चुनाव प्रक्रिया के दौरान कोई प्रत्याशी विजयी होता है, तो याचिकाओं की आगे की सुनवाई में उनकी बात भी सुनी जाएगी, ताकि किसी भी पक्ष की अनदेखी न हो। उत्तराखंड में पंचायत चुनावों को लेकर जारी अनिश्चितता अब खत्म होती दिख रही है। हाई कोर्ट के फैसले से जहां राज्य सरकार और निर्वाचन आयोग को राहत मिली है, वहीं यह मामला आरक्षण की पारदर्शिता और न्यायसंगत प्रतिनिधित्व पर भी एक अहम बहस को जन्म देता है।


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