साल 2017 में देखा गया था देहरादून में मेट्रो चलने का सपना, लेकिन 90 करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद आज तक ज़मीन पर एक ईंट भी नहीं रखी गई है। अब यह सपना या तो अंतिम सांसें गिन रहा है या एक नए मोड़ पर खड़ा है, जहाँ मुख्यमंत्री का फैसला भविष्य तय करेगा।
देहरादून की मेट्रो परियोजना आज एक ऐसे मोड़ पर है, जहाँ न आगे बढ़ाना आसान है और न पीछे हटना। परियोजना पर अभी तक करीब 90 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन इसका धरातलीय कार्य आज भी शुरू नहीं हो सका है। वहीं 2300 करोड़ रुपये से अधिक की लागत वाली इस परियोजना को राज्य अपने दम पर आगे बढ़ाने की स्थिति में भी नहीं है।
नए एमडी की तलाश और उम्मीद की डोर
पूर्व कार्यवाहक एमडी बृजेश मिश्रा का कार्यकाल 31 मई को समाप्त हो चुका है और अब नया प्रबंध निदेशक कौन होगा, इस पर निर्णय मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को लेना है। यदि नए एमडी की नियुक्ति होती है, तो सरकार को साथ ही यह भी तय करना होगा कि परियोजना को वित्तीय सहायता कैसे मिलेगी।
2017 से अब तक क्या हुआ?
- 2017 में पहली बार देहरादून में मेट्रो का सपना देखा गया था।
- 08 जनवरी 2022 को नियो मेट्रो की डीपीआर राज्य कैबिनेट से पास हुई और
- 12 जनवरी 2022 को यह डीपीआर केंद्र सरकार को भेजी गई।
- लेकिन केंद्र सरकार ने कोई सकारात्मक जवाब नहीं दिया।
- राज्य सरकार ने स्वयं परियोजना को आगे बढ़ाने का संकेत दिया लेकिन वित्त विभाग अब तक इसकी लागत वहन करने में असमर्थ रहा है।
नियो मेट्रो के लिए कहां से आएंगे 2300 करोड़?
परियोजना की लागत पहले 1852 करोड़ रुपये थी जो बढ़कर 2024 तक 2303 करोड़ हो गई और अनुमान है कि अब यह 3000 करोड़ के आसपास पहुंच चुकी होगी। केंद्र सरकार की ओर से कोई सहायता न मिलने के कारण राज्य सरकार के लिए इतने बड़े बजट को जुटाना एक कठिन चुनौती बन गया है।
मेट्रो प्रबंधन के ढांचे में बिखराव
अब तक कई उच्चाधिकारी परियोजना से हट चुके हैं:
- निदेशक प्रोजेक्ट
- महाप्रबंधक वित्त
- अपर महाप्रबंधक सिविल
- उप महाप्रबंधक वित्त व सिविल
- जनसंपर्क अधिकारी
अब परियोजना एमडी विहीन हो गई है, और कारपोरेशन की बागडोर एक बार फिर अधर में लटक गई है।
प्रस्तावित रूट और स्टेशनों का खाका
कॉरिडोर | लंबाई |
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आईएसबीटी से गांधी पार्क | 8.5 किमी |
एफआरआई से रायपुर | 13.9 किमी |
कुल प्रस्तावित स्टेशन | 25 |
कुल लंबाई | 22.42 किमी |
गले की हड्डी बनती परियोजना
देहरादून मेट्रो अब सरकार के लिए ऐसी स्थिति में पहुंच गई है जिसे न निगला जा सकता है न उगला। यदि सरकार अब भी कोई ठोस निर्णय नहीं लेती, तो यह परियोजना राजनीतिक और आर्थिक विफलता का प्रतीक बन सकती है।
अब सारा दारोमदार मुख्यमंत्री के निर्णय पर है — क्या वह नए एमडी की नियुक्ति कर परियोजना को नई ऊर्जा देंगे या 90 करोड़ रुपये की बर्बादी के साथ इस अध्याय को बंद कर देंगे?